‘मेक इन इंडिया’ का नारा सुनते ही सीना चौड़ा हो जाता है। सरकार बताती है कि भारत अब मोबाइल फोन का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक बन गया है, कारें और इलेक्ट्रॉनिक्स यहां बन रहे हैं, निर्यात आसमान छू रहा है और लाखों नौकरियां पैदा हो रही हैं। लेकिन अगर परतें उखाड़ें तो सामने आता है एक कड़वा सच – ज्यादातर ‘मेक इन इंडिया’ असल में ‘असेंबल इन इंडिया’ है।

महत्वपूर्ण पार्ट्स चीन और अन्य देशों से आते हैं, यहां सिर्फ उन्हें जोड़ा जाता है। घरेलू मूल्य संवर्धन (वैल्यू एडिशन) न के बराबर है। फिर भी, देसी भावना और आत्मनिर्भरता के नाम पर इसे महान उपलब्धि बताया जा रहा है।
मेक इन इंडिया और प्रोडक्शन लिंक्ड इंसेंटिव (PLI) स्कीम के तहत भारत कई क्षेत्रों में उत्पादन बढ़ा रहा है, लेकिन ज्यादातर मामलों में यह असेंबलिंग (आयातित पार्ट्स को जोड़ना) पर आधारित है, न कि पूर्ण मैन्युफैक्चरिंग (कंपोनेंट्स का घरेलू उत्पादन) पर। महत्वपूर्ण पार्ट्स जैसे चिप्स, डिस्प्ले, बैटरी, कैमरा मॉड्यूल आदि अभी भी मुख्य रूप से चीन, कोरिया, ताइवान से आयात होते हैं। घरेलू वैल्यू एडिशन कई सेक्टर्स में कम (10-25%) है, हालांकि कुछ में सुधार हो रहा है।
भारत दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा मोबाइल उत्पादक है। Apple, Samsung, Xiaomi आदि की असेंबलिंग यहां होती है। 99% मोबाइल भारत में असेंबल होते हैं, निर्यात बढ़ा है, लेकिन डोमेस्टिक वैल्यू एडिशन यानी DVA मात्र 15-20% ही है। चिप्स, डिस्प्ले, बैटरी आयातित होते हैं।
भारत में अब कंज्यूमर इलेक्ट्रॉनिक्स अर्थात टीवी, लैपटॉप, वियरेबल्स, हियरेबल्स जैसे स्मार्टवॉच, ईयरबड्स) AC, LED लाइट्स आदि की असेंबलिंग बढ़ी है। व्हाइट गुड्स (AC और LED) में DVA 20-25% से बढ़कर 75-80% लक्ष्य है, लेकिन अभी असेंबलिंग ही हावी है। ।

भारत ऑटोमोबाइल और ऑटो कंपोनेंट्स (कारें, इलेक्ट्रिक व्हीकल्स – EV) का एक बड़ा बाजार बन चुका है। Tata, Mahindra, Hyundai आदि की कारें और EV असेंबल हो रही हैं। बैटरी, मोटर्स, पावर इलेक्ट्रॉनिक्स आयातित होती हैं। ऑटो सेक्टर में ट्रेड सरप्लस हुआ, लेकिन क्रिटिकल पार्ट्स पर निर्भरता बनी हुई है।
इसी तरह आईटी हार्डवेयर (लैपटॉप, टैबलेट, सर्वर्स) में Dell, HP आदि की असेंबलिंग शुरू हुई, लेकिन इस सेक्टर में भी कंपोनेंट्स आयातित होते हैं। यही हाल टेलीकॉम और नेटवर्किंग प्रोडक्ट्स सेक्टर का भी है। 4G/5G उपकरण असेंबल हो रहे हैं, 60% इंपोर्ट सब्स्टीट्यूशन हुआ, लेकिन हाई-एंड कंपोनेंट्स आयात किये जा रहे हैं। ड्रोन और ड्रोन कंपोनेंट्स की असेंबलिंग बढ़ी, टर्नओवर कई गुना बढ़ा, लेकिन पार्ट्स आयात पर निर्भर।
ये क्षेत्र प्रोडक्शन लिंक्ड इंसेंटिव स्कीम के मुख्य लाभार्थी हैं, जहां निवेश और उत्पादन बढ़ा है, लेकिन असली मैन्युफैक्चरिंग (कंपोनेंट लेवल) अभी सीमित है। सेमीकंडक्टर, डिस्प्ले, सोलर PV जैसे क्षेत्रों में नए प्लांट आ रहे हैं, जो भविष्य में असेंबलिंग से आगे ले जा सकते हैं। कुल मिलाकर, मेक इन इंडिया ने असेंबलिंग हब बनाया है।
कल्पना कीजिए एक विशाल फैक्ट्री का दृश्य : सैकड़ों मजदूर लाइन में खड़े हैं, Imported पार्ट्स को जोड़कर चमचमाते स्मार्टफोन या कारें बना रहे हैं। बाहर बोर्ड लगा है – ‘मेक इन इंडिया’। सरकार गर्व से घोषणा करती है कि भारत अब दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा मोबाइल फोन उत्पादक है, निर्यात दोगुने हो गए हैं, लाखों नौकरियां पैदा हुई हैं। लेकिन अगर जरा गहराई में झांकें, तो पता चलता है कि ये फोन या कारें असल में ‘मेड इन इंडिया’ नहीं, बल्कि ‘असेंबल्ड इन इंडिया’ हैं।
ज्यादातर महत्वपूर्ण पार्ट्स –चिप्स, डिस्प्ले, कैमरा मॉड्यूल, बैटरी – विदेश से आते हैं, मुख्य रूप से चीन से। असली वैल्यू एडिशन, यानी असली मैन्युफैक्चरिंग, कहीं और हो रही है। और सरकार? वह देसी भावना के नाम पर इसे ‘आत्मनिर्भर भारत’ का परचम बता रही है।
यह कोई काल्पनिक कहानी नहीं, बल्कि भारत की मैन्युफैक्चरिंग रियलिटी है। 2014 में लॉन्च हुई ‘मेक इन इंडिया’ पहल और उसके बाद 2020 में आई प्रोडक्शन लिंक्ड इंसेंटिव (PLI) स्कीम ने कई सेक्टर्स में उत्पादन बढ़ाया है, लेकिन ज्यादातर मामलों में यह असेंबलिंग तक सीमित रहा है। असली लाभ – हाई-वैल्यू जॉब्स, टेक्नोलॉजी ट्रांसफर, सप्लाई चेन की मजबूती और आयात पर निर्भरता की कमी – अभी दूर की कौड़ी है।
सबसे चमकदार उदाहरण है मोबाइल फोन और इलेक्ट्रॉनिक्स सेक्टर। PLI स्कीम के तहत मोबाइल मैन्युफैक्चरिंग के लिए हजारों करोड़ की सब्सिडी दी गई। नतीजा? भारत में अब 99% मोबाइल फोन असेंबल होते हैं। Apple, Samsung, Xiaomi जैसी कंपनियां यहां फैक्टरियां लगा रही हैं।

2024-25 में स्मार्टफोन निर्यात 20 बिलियन डॉलर को पार कर गया। सरकार इसे बड़ी उपलब्धि बताती है। लेकिन हकीकत क्या है? घरेलू वैल्यू एडिशन (Domestic Value Addition) मात्र 10-23% है। बाकी 77-90% पार्ट्स इंपोर्टेड हैं – सेमीकंडक्टर चिप्स, डिस्प्ले, कैमरा, बैटरी सब विदेश से। पूर्व RBI गवर्नर रघुराम राजन ने सही कहा था कि हम असेंबलिंग कर रहे हैं, मैन्युफैक्चरिंग नहीं।
यह लो-स्किल जॉब्स तो पैदा करता है, लेकिन हाई-पेइंग, इनोवेटिव जॉब्स नहीं। और इंपोर्ट बिल इतना बढ़ गया कि कई बार निर्यात से ज्यादा आयात हो रहा है। फिर भी, सरकार ‘भारत दुनिया का मोबाइल हब बन रहा है’ कहकर तालियां बटोरती है। देसी युवाओं को लगता है कि हम चीन को टक्कर दे रहे हैं, जबकि असल में हम चीन की सप्लाई चेन का हिस्सा बन रहे हैं।
ऑटोमोबाइल और इलेक्ट्रिक व्हीकल (EV) सेक्टर में भी यही कहानी दोहराई जा रही है। भारत दुनिया का चौथा सबसे बड़ा ऑटो मार्केट है। PLI स्कीम के तहत ऑटो कंपोनेंट्स और EV के लिए इंसेंटिव दिए गए। देसी कंपनियां EV में आगे हैं, और विदेशी कंपनियां भी असेंबलिंग प्लांट लगा रही हैं। लेकिन यहां भी ज्यादातर असेंबलिंग है। बैटरी, मोटर्स, पावर इलेक्ट्रॉनिक्स जैसे क्रिटिकल कंपोनेंट्स इंपोर्टेड हैं। वैल्यू एडिशन सिंगल डिजिट में है।
सरकार कहती है कि हम ग्रीन मोबिलिटी के लीडर बन रहे हैं, लेकिन असल में हम विदेशी टेक्नोलॉजी पर निर्भर हैं। EV बैटरी के लिए एडवांस्ड केमिस्ट्री सेल (ACC) PLI है, लेकिन प्रोग्रेस स्लो है। राहुल गांधी ने सही ध्यान दिलाया है कि टीवी सेट्स के 80% कंपोनेंट्स चीन से आते हैं, फिर भी हम इसे ‘मेक इन इंडिया’ कहते हैं। कारों में भी यही हाल – बॉडी असेंबल होती है, लेकिन इंजन, इलेक्ट्रॉनिक्स विदेशी।
कंज्यूमर इलेक्ट्रॉनिक्स जैसे टीवी, लैपटॉप, व्हाइट गुड्स में PLI ने उत्पादन बढ़ाया, लेकिन फिर असेंबलिंग। डिस्प्ले पैनल, चिप्स इंपोर्टेड। सरकार ‘देसी’ ब्रांड्स जैसे Boat, Noise को प्रमोट करती है, लेकिन उनके प्रोडक्ट्स भी आयातित किट्स से असेंबल होते हैं।
डिफेंस सेक्टर में ‘मेक इन इंडिया’ का सबसे बड़ा प्रचार होता है। आत्मनिर्भरता के नाम पर HAL, DRDO की तारीफें। लेकिन फाइटर जेट्स, सबमरीन्स असेंबल होते हैं विदेशी टेक्नोलॉजी से। क्रिटिकल पार्ट्स इंपोर्टेड। PLI यहां नहीं, लेकिन पहल के तहत लोकलाइजेशन का दावा। हकीकत में वैल्यू एडिशन कम। अन्य सेक्टर्स जैसे टेक्सटाइल्स, फूड प्रोसेसिंग, सोलर PV मॉड्यूल्स में PLI प्रोग्रेस स्लो है। टेक्सटाइल्स और स्पेशल्टी स्टील में निवेश कम। फार्मा में कुछ सफलता है, लेकिन इलेक्ट्रॉनिक्स और ऑटो जैसे हाई-टेक में असेंबलिंग डॉमिनेट।
सरकार यह भ्रम कैसे फैला रही है? सबसे बड़ा हथियार है देसी भावना का इस्तेमाल। ‘आत्मनिर्भर भारत’, ‘मेक इन इंडिया’ जैसे स्लोगन से राष्ट्रवाद जगाया जाता है। हर सफलता – चाहे वह असेंबलिंग ही क्यों न हो – को ‘चीन को टक्कर’ बताया जाता है। मीडिया में बड़े-बड़े आंकड़े: निवेश इतने करोड़, जॉब्स इतनी लाख, निर्यात इतना बिलियन। लेकिन वैल्यू एडिशन, इंपोर्ट डिपेंडेंसी जैसे नेगेटिव पॉइंट्स छिपाए जाते हैं।
मंत्री राजीव चंद्रशेखर कहते हैं कि असेंबलिंग से शुरूआत होती है, धीरे-धीरे वैल्यू एडिशन बढ़ेगा। लेकिन 10 साल बाद भी सिंगल डिजिट में है। टैक्सपेयर्स का पैसा PLI में लग रहा है, जो विदेशी कंपनियों को सब्सिडी दे रहा है असेंबलिंग के लिए।
असली लाभ क्यों नहीं हो रहा? क्योंकि असेंबलिंग लो-वैल्यू है। यह लेबर-इंटेंसिव है, लेकिन स्किल्ड जॉब्स कम। मल्टीप्लायर इफेक्ट कम – अर्थव्यवस्था पर व्यापक असर नहीं। आयात निर्भरता बनी रहती है, ट्रेड डेफिसिट बढ़ता है। टेक्नोलॉजी ट्रांसफर नहीं होता, इनोवेशन नहीं होता ।
चीन ने असेंबलिंग से शुरू करके कंपोनेंट मैन्युफैक्चरिंग में मास्टरी हासिल की, हम अभी वहीं अटके हैं। हमें इसके लिए एजुकेशन, स्किल डेवलपमेंट, R&D पर निवेश चाहिए। इंफ्रास्ट्रक्चर मजबूत करना होगा। तब जाकर ‘मेक इन इंडिया’ असली मैन्युफैक्चरिंग का प्रतीक बनेगा।
स्वदेशी पर गर्व अच्छा है, लेकिन भ्रम नहीं। अगर हम सिर्फ असेंबलिंग पर खुश रहें, तो चीन से मुकाबला दूर की बात है। असली आत्मनिर्भरता तब आएगी जब हम डिजाइन करें, इनोवेट करें और हाई-वैल्यू कंपोनेंट्स बनाएं। तब ‘मेक इन इंडिया’ सिर्फ स्लोगन नहीं, रियलिटी बनेगा अन्यथा, यह सिर्फ एक महंगा असेंबलिंग गेम रहेगा, जहां देसी नाम पर विदेशी पार्ट्स चमकते रहेंगे।

