
-निकिता यादव
भारत में सौर ऊर्जा का तेज़ी से विस्तार होना एक बड़ी सफलता माना जा रहा है.
लेकिन इसके साथ ही एक सवाल भी है कि अगर इससे पैदा होने वाले कचरे को संभालने की कोई ठोस योजना नहीं है, तो यह बदलाव कितना साफ़-सुथरा कहलाएगा?
सिर्फ़ एक दशक से थोड़े ज़्यादा समय में ही भारत दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा सौर ऊर्जा उत्पादक बन गया है. नवीकरणीय ऊर्जा देश की जलवायु रणनीति का महत्वपूर्ण हिस्सा है. विशाल सौर पार्कों से लेकर शहरों, क़स्बों और गांवों की नीली छतों तक, हर जगह सोलर पैनल नज़र आते हैं.
बड़े सौर पार्कों के साथ-साथ लाखों घरों पर लगे रूफ़टॉप सिस्टम अब बिजली पैदा कर ग्रिड में ऊर्जा पहुंचा रहे हैं.
सरकारी आंकड़ों के मुताबिक़ सब्सिडी योजना के तहत लगभग 24 लाख घरों में सौर ऊर्जा प्लांट लगे हैं.
सौर ऊर्जा की बढ़त से भारत की कोयले पर निर्भरता कम हो गई है. हालांकि थर्मल और अन्य ग़ैर-नवीकरणीय स्रोतों से अब भी कुल क्षमता का आधे से ज़्यादा हासिल होता है. सौर ऊर्जा अब कुल ऊर्जा में 20 फ़ीसदी से अधिक का योगदान करती है.
यह एक उल्लेखनीय उपलब्धि तो है लेकिन इसके साथ एक चुनौती भी है.
बेशक यह इस्तेमाल में साफ़ यानी प्रदूषण मुक्त है, लेकिन अगर सही तरीके़ से प्रबंधन न किया जाए तो सोलर पैनल पर्यावरण के लिए ख़तरा बन सकते हैं.
सोलर पैनल का ज़्यादातर हिस्सा रीसाइकल किया जा सकता है.
इनमें कांच, एल्युमिनियम, चांदी और पॉलिमर होते हैं. लेकिन इनमें थोड़ी मात्रा में ही मौजूद सीसा और कैडमियम जैसी ज़हरीले धातुओं को अगर ठीक तरीके़ से संभाला न जाए तो ये मिट्टी और पानी को प्रदूषित कर सकते हैं.
आमतौर पर सोलर पैनल लगभग 25 साल तक चलते हैं, उसके बाद उन्हें हटाकर फेंक दिया जाता है.
फ़िलहाल भारत में सौर कचरे को रीसाइकल करने के लिए अलग से कोई बजट नहीं है और पुराने पैनलों को प्रोसेस करने के लिए कुछ छोटे-छोटे केंद्र ही हैं.
भारत के पास सौर कचरे का कोई आधिकारिक आंकड़ा नहीं है. लेकिन एक अध्ययन के मुताबिक़ 2023 तक लगभग एक लाख टन और 2030 तक 6 लाख टन तक सौर कचरा पैदा हो सकता है.
अभी यह मात्रा कम है, लेकिन विशेषज्ञ चेतावनी देते हैं कि कचरे का असली बोझ आगे आने वाला है.
अगर जल्द ही निवेश कर रीसाइक्लिंग की व्यवस्था नहीं बनाई गई तो भारत को बढ़ते सौर कचरे के संकट का सामना करना पड़ सकता है.
ऊर्जा, पर्यावरण और जल परिषद (सीईईडब्ल्यू) के एक नए अध्ययन के मुताबिक़, भारत में 2047 तक 1.1 करोड़ टन से ज़्यादा सौर कचरा पैदा हो सकता है.
इसे सुरक्षित रूप से ठिकाने लगाने के लिए लगभग 300 विशिष्ट रीसाइक्लिंग केंद्र चाहिए होंगे और अगले दो दशक में क़रीब 47.80 करोड़ डॉलर का निवेश करना होगा.
ऊर्जा कंपनी टारग्रे के रोहित पाहवा कहते हैं, “भारत के ज़्यादातर बड़े सौर पार्क 2010 के दशक के दौरान बने थे, इसलिए सौर कचरे की असली लहर अगले 10 से 15 साल में आएगी.”
वैसे भारत के सौर कचरे के अनुमान वैश्विक पैटर्न से मेल खाते हैं.
अमेरिका में 2030 तक 1.7 लाख से 10 लाख टन तक सौर कचरा पैदा हो सकता है और चीन में भी यह आंकड़ा लगभग 10 लाख टन तक पहुंच सकता है. इन दोनों देशों ने भी 2010 के दशक में तेज़ी से सौर ऊर्जा का विस्तार किया था.
हालांकि नीतियों को लेकर परिदृश्य अलग है.
समस्या बढ़ेगी तो मिलेंगे समाधान भी
अमेरिका में सोलर पैनलों की रीसाइक्लिंग ज़्यादातर बाज़ार-आधारित है और अलग-अलग राज्यों के नियमों पर निर्भर करती है.
चीन की व्यवस्था, भारत की तरह ही अभी विकसित हो रही है और वहां कोई ठोस नियामक ढांचा नहीं है.
भारत में 2022 में सोलर पैनलों को ई-वेस्ट नियमों के तहत लाया गया.
इससे अब यह निर्माताओं की ज़िम्मेदारी है कि पैनलों की उम्र पूरी होने पर वे (निर्माता) उन्हें इकट्ठा करें, स्टोर करें, तोड़ें और रीसाइकल करें.
विशेषज्ञों का कहना है कि इन नियमों का एक समान रूप से पालन नहीं किया जा सकता, ख़ासकर घरों और छोटे पैमाने पर लगे पैनलों के मामले में.
ये कुल इंस्टॉलेशन का 5 से 10 फ़ीसदी हैं. ये पैनल भले ही कम हों, लेकिन इन्हें ट्रैक करना, इकट्ठा करना और रीसाइकल करना मुश्किल होता है, इसलिए ये काफ़ी कचरा पैदा कर सकते हैं.
अक्सर ख़राब या फेंके गए पैनल लैंडफिल में चले जाते हैं या अनाधिकृत रूप से रीसाइकल करने वालों के पास पहुंच जाते हैं. वहां असुरक्षित तरीक़ों से काम करने पर ज़हरीले पदार्थ बाहर निकल सकते हैं.
इस संबंध में सरकार का पक्ष जानने के लिए बीबीसी ने भारत के नवीनीकरण ऊर्जा मंत्रालय से संपर्क किया था.
पर्यावरण विशेषज्ञ साई भास्कर रेड्डी नक्का कहते हैं, “सौर ऊर्जा दो दशकों तक साफ़ ऊर्जा का भ्रम देती है, लेकिन अगर पैनलों को रीसाइकल करने की गंभीर योजना नहीं बनी तो यह अपने पीछे मॉड्यूल्स का क़ब्रिस्तान छोड़ जाएगी. और ये कोई ठोस विरासत नहीं होगी.”
हालांकि विशेषज्ञ मानते हैं कि चुनौतियों हैं लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि इस समस्या से अवसर पैदा नहीं होंगे.
रोहित पाहवा कहते हैं, “जैसे-जैसे कचरा बढ़ेगा, वैसे-वैसे उन कंपनियों की मांग भी बढ़ेगी जो इसे सही तरीके़ से प्रोसेस करना जानती हों.”
अकुशल रीसाइक्लिंग के नुक़सान
सीईईडब्ल्यू का कहना है कि अगर रीसाइक्लिंग कुशलता से की जाए तो 2047 तक नए पैनलों के लिए 38 फ़ीसदी सामग्री इससे निकाली जा सकती है.
इससे खनन से होने वाले 3.7 करोड़ टन कार्बन उत्सर्जन को भी रोका जा सकता है.
अध्ययन की सह-लेखिका आकांक्षा त्यागी कहती हैं कि भारत में पहले से ही कांच और एल्युमिनियम के बाज़ार मौजूद हैं. इसके अलावा सोलर सेल में पाई जाने वाली सिलिकॉन, चांदी और तांबे जैसी धातुओं को भी नए पैनलों या अन्य उद्योगों में इस्तेमाल के लिए वापस निकाला जा सकता है.
फ़िलहाल ज़्यादातर सौर कचरे को साधारण तरीक़ों से प्रोसेस किया जाता है, जिनसे केवल कम मूल्य वाली सामग्री जैसे कांच और एल्युमिनियम ही निकल पाती है. क़ीमती धातुएं या तो खो जाती हैं, ख़राब हो जाती हैं या बहुत कम मात्रा में ही निकाली जा पाती हैं.
विशेषज्ञों का कहना है कि आने वाला दशक भारत के सौर लक्ष्यों के लिए निर्णायक होगा. देश को तेज़ी से क़दम उठाने होंगे- एक नियमित और आत्मनिर्भर रीसाइक्लिंग व्यवस्था बनानी होगी, घर-घर जागरूकता बढ़ानी होगी और सौर व्यापार मॉडल में कचरा संग्रहण को शामिल करना होगा.
पर्यावरण विशेषज्ञ साई भास्कर रेड्डी नक्का कहते हैं कि जो कंपनियां सौर ऊर्जा से मुनाफ़ा कमा रही हैं, उन्हें यह ज़िम्मेदारी भी लेनी चाहिए कि पैनल के काम करना बंद करने के बाद उनका क्या किया जाए.
वह चेतावनी देते हैं, “अगर सही रीसाइक्लिंग नहीं हुई तो आज की साफ़ ऊर्जा कल के लिए बड़ा कचरा बन सकती है.” (bbc.com/hindi)

