मनुष्यता के पक्षधर कवि-कथाकार का जाना

NFA@0298
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ज्ञानपीठ और प्रतिष्ठित पेन नाबोकोव जैसे पुरस्कारों से सम्मानित विनोद कुमार शुक्ल अपनी अनुपस्थिति में भी अपनी कविताओं और गद्य के जरिये हिंदी ही नहीं, बल्कि संसार की अनेक भाषाओं में उपस्थित बने रहेंगे। आने वाली पहली जनवरी को उनका 90 वां जन्मदिन था, लेकिन इससे नौ दिन पहले 23 दिसंबर को रायपुर में उनका निधन हो गया।

वह करीब ढाई महीने से बीमार जरूर थे, लेकिन उनमें जीवन जीने का जैसा उत्साह था, वह उनकी कविताओं की तरह ही सहज था। छह दिसंबर को लिखी गई तीन पंक्तियों की छोटी-सी कविता में वह लिखते हैं, बत्ती मैंने पहली बुझाई/ फिर तुमने बुझाई/ फिर दोनों ने मिलकर बुझाई।

उजाले की ओर ले जाती ये पंक्तियां विनोद कुमार शुक्ल की उपस्थिति का एहसास कराती रहेंगी। अस्पताल में भरती रहने के दौरान ही जब उनसे पूछा गया था, तब उनका जवाब था, वह लिखना चाहते हैं और घर जाना चाहते हैं।

दरअसल घर लौटना विनोद कुमार शुक्ल का केंद्रीय भाव है, जिसमें मनुष्यता की गहरी संवेदना देखी जा सकती है। विनोद कुमार शुक्ल मनुष्यता के कवि हैं और एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा भी था कि मनुष्यता के पक्ष में खड़ा होना सबसे बड़ी राजनीति है।

अपनी किशोरावस्था में अपने गृह नगर राजनांदगांव में गजानन माधव मुक्तिबोध जैसे दिग्गज साहित्यकार से प्रेरित होने वाले विनोद कुमार शुक्ल ने 1970 के दशक की शुरुआत में ही अपनी कविताओं के जरिये हिंदी जगत में अपनी उपस्थिति दर्ज करवा ली थी।

कविताओं के साथ ही उन्होंने तीन उपन्यास भी लिखे जिनमें मध्य वर्गीय जीवन की दुश्वारियां और छोटे छोटे सुख-दुख सहजता से आते हैं। उनके पहले उपन्यास नौकर की कमीज पर जहां मणि कौल ने फिल्म भी बनाई थी, वहीं उनके एक अन्य उपन्यास दीवार में एक खिड़की रहती थी, को साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया था।

बीते कुछ बरसों में उन्होंने बच्चों के लिए भी खूब लिखा। उनका रचना संसार जितना बड़ा है, उतना ही बड़ा उनके पाठकों का संसार भी है। उनके निधन से सचमुच हिंदी के एक महत्वपूर्ण अध्याय का अंत हो गया।



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