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-राजेश डोबरियाल
जुलाई-अगस्त 2024 में बांग्लादेश में हुए हिंसक आंदोलन ने शेख़ हसीना की सरकार को हटा दिया था. साथ ही इस हिंसा ने देश को उस ट्रैक से भी उतार दिया जिस पर वह अपने अस्तित्व में आने के बाद सावधानीपूर्वक बढ़ रहा था.
यह ट्रैक था आर्थिक समृद्धि का. साल 2020 में बहुत से लोगों को यह जानकर झटका सा लगा था कि बांग्लादेश की आर्थिक विकास की दर भारत से तेज होने जा रही थी.
लेकिन जुलाई, 2024 में यह पूरी तरह से बदल गया. 1971 के स्वतंत्रता आंदोलन के परिजनों को आरक्षण जारी रखने के बांग्लादेश हाई कोर्ट के फ़ैसले के ख़िलाफ़ युवाओं का जो आंदोलन शुरू हुआ वह इस कदर बेपटरी हुआ कि बांग्लादेश पिछले डेढ़ साल से हिंसा की आग में सुलग रहा है.
हालात कितने ख़राब हो चुके हैं यह बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी (बीएनपी) के एक नेता के बयान से समझा जा सकता है जिनका कहना है कि देश में ‘लोकतंत्र के बजाय भीड़तंत्र क्यों आ गया?’
ऐसे में यह सवाल तो उठता ही है कि यह सब कुछ हुआ कैसे और क्या स्थितियों के सुधरने की उम्मीद की जा सकती है?
बीते गुरुवार को इंकलाब मंच के नेता शरीफ़ उस्मान हादी की मौत के बाद से बांग्लादेश और भारत के रिश्तों में और तनाव आ गया है. क्योंकि ये अफ़वाह उड़ी कि हादी को गोली मारने वाले लोग भारत फरार हो गए हैं.
बीबीसी हिन्दी ने इस बारे में कुछ जानकारों से बात की और समझना चाहा कि क्या बांग्लादेश में मौजूदा घटनाक्रम को देखते हुए क्या हालात जल्द संभल सकते हैं?
साउथ एशियन यूनिवर्सिटी में एसोसिएट प्रोफ़ेसर धनंजय त्रिपाठी कहते हैं, “शेख़ हसीना की सरकार के हटने के बाद से बांग्लादेश में स्थिति ख़राब हुई है. चुनी हुई सरकार वहां है नहीं, अराजकता है, अंतरिम सरकार ने कुछ किया नहीं है. शेख हसीना के देश छोड़ने के बाद वहां बहुत हिंसा हुई है और टार्गेटेड हिंसा हुई है. इसकी वजह से जो आर्थिक स्थिति थी वह ख़राब हुई है.”
प्रोफ़ेसर त्रिपाठी कहते हैं, “हालांकि यह कहना ठीक नहीं होगा कि शेख़ हसीना के समय में आर्थिक हालात बहुत अच्छे थे. यह ठीक है कि जीडीपी बढ़ रही थी लेकिन वह आर्थिक विकास में तब्दील नहीं हो पा रही थी. आर्थिक असमानता को लेकर वहां काफ़ी सवाल उठाए जाते थे.”
“इसके बावजूद एक ढांचा तो बना हुआ था. लेकिन अब वहां विदेशी निवेश में गिरावट आई है. यह स्वाभाविक भी है, जब अराजकता होगी तो आर्थिक प्रगति प्रभावित होगी ही.”
ऑब्ज़र्वर रिसर्च फ़ाउंडेशन के अध्ययन और विदेश नीति विभाग के उपाध्यक्ष प्रोफ़ेसर हर्ष वी पंत कहते हैं, “भारत शुरू से ही कह रहा था कि अगर आपको शेख़ हसीना की सरकार को हटाना है तो वह लोकतांत्रिक तरीके से होना चाहिए. और हमें जो गुस्साई भीड़ दिखी थी पिछले साल बांग्लादेश की सड़कों पर उससे वह अभी तक उबर ही नहीं पाया है.”
“पिछले डेढ़ साल में आर्थिक विकास, रोज़गार, यूथ मैनेजमेंट जैसे एक भी असल मुद्दे पर यूनुस सरकार ने क्या काम किया है? मुझे तो कुछ नज़र नहीं आता.”
कट्टरपंथियों का दबदबा
प्रोफ़ेसर त्रिपाठी कहते हैं कि ऐसे लोग जो शेख हसीना के साथ नहीं थे और उम्मीद कर रहे थे कि वह जाएंगी तो फिर देश दूसरी तरफ़ बढ़ जाएगा वह निराश हो रहे हैं.
त्रिपाठी कहते हैं, “दरअसल लोकतंत्र में अगर आप संवैधानिक तरीके से सत्ता का हस्तांतरण नहीं करवाते हैं और उसे भीड़ के हाथ में दे देते हैं तो फिर वही होता है जो आज बांग्लादेश में हो रहा है. वैसे यह भारत के लिए बाद में बांग्लादेश के लिए पहले चिंता का विषय है.”
वह कहते हैं, “बांग्लादेश में भारत विरोधी एक गुट हमेशा से रहा है लेकिन शेख हसीना के चलते वह प्रभावशाली नहीं हो पाया, अब वह प्रभाव की स्थिति में है. बांग्लादेश में जो भारत-विरोधी ताकतें थीं वह शेख हसीना के ख़िलाफ़ भी थीं क्योंकि वह मानती थीं कि हसीना का झुकाव भारत की तरफ़ था. वही ताकतें हसीना को हटाने में भी आगे थीं. वहां वही ताकतें अब प्रमुख राजनीतिक ताकत बनी हुई हैं.”
प्रोफ़ेसर पंत कहते हैं, “अभी तो स्थिति यह है कि बांग्लादेश को कट्टरपंथ की तरफ़ ले जाया जा रहा है या यूं कहें कि वहां कट्टरपंथी पार्टियों का दबदबा बनाया जा रहा है या फिर वहां पर अराजकता है, लोकतंत्र की संस्थाएं ढह गई हैं और कोई कुछ करना ही नहीं चाह रहा है. पहले लोग कह रहे थे जो हो रहा है वह भारत की वजह से हो रहा है लेकिन अब जो हो रहा है उसमें तो सिर्फ़ बांग्लादेश की ज़िम्मेदारी है, उसके लोगों की ज़िम्मेदारी है.”
प्रोफ़सर त्रिपाठी का कोट
प्रोफेसर पंत कहते हैं, “लोकतांत्रिक संस्थाओं को जिस तरह निशाना बनाया जा रहा है आपको लगता है कि प्रगतिशील तबका वहां आकर वोट देगा? एक तरह से माहौल ऐसा बनाया जा रहा है कि जो कट्टरपंथी गुट हैं उन्हीं को मुख्यधारा में जमाया जाए और उन्हीं को सत्ता का हस्तांतरण किया जाए.”
उनके अनुसार फरवरी में होने वाले चुनाव से कुछ बदलने की उम्मीद करना बेमानी है. बांग्लादेश में मुख्यधारा की दो पार्टियां हैं चरमपंथी उनके ख़िलाफ़ हैं, उन्हें निशाना बनाया जा रहा है. अब बीएनपी का तो शेख हसीना से कोई लेना-देना नहीं है लेकिन उसे निशाना इसलिए बनाया जा रहा है कि वह एक मुख्यधारा की पार्टी है और अब सरकार में कट्टरपंथियों का दबदबा है.
लेकिन बीएनपी नेता के बयान को प्रोफ़ेसर त्रिपाठी पार्टी का सच्चाई का सामना होने की तरह देखते हैं.
वह कहते है, “बीएनपी को शुरू में लगा था कि शेख हसीना के जाने का फ़ायदा उन्हें होगा लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि आरक्षण के ख़िलाफ़ जो आंदोलन था उसमें बीएनपी कहीं थी ही नहीं. बतौर राजनीतिक दल बीएनपी तो तितर-बितर हो गई है, 10 साल से चुनाव नहीं लड़ रही है, कोई प्रदर्शन नहीं कर रही है. तो जिन लोगों ने पूरा आंदोलन किया और उस हद तक ले गए कि शेख हसीना को देश छोड़ना पड़े. उसमें मुख्य रूप से जमात-ए-इस्लामी और कुछ स्वतंत्र आवाज़ें थीं. इसलिए फ़ायदा उन्हें ही मिलेगा और अब बीएनपी को यह दिख रहा है. पहले बांग्लादेश में एक तरह का दो-पार्टी वाला सिस्टम था लेकिन इस आंदोलन के बाद यह बदल गया है.”
क्या यह अंतरिम सरकार की नाकामी है?
प्रोफ़ेसर पंत कहते हैं., “आज बांग्लादेश की जो हालत है उसकी सबसे बड़ी वजह हैं अंतरिम सरकार के प्रमुख मोहम्मद यूनुस. नोबेल पुरस्कार विजेता यूनुस को यह कहकर लाया गया कि वह सब ठीक कर देंगे, पूरी तरह असफल हो गए. देखिए बांग्लादेश की क्या हालत हो गई है उनके नेतृत्व में. मैंने तो नहीं देखा कि मोहम्मद यूनुस ने कड़े शब्दों में चरमपंथियों की निंदा की हो. शायद वह यही चाह रहे हों कि चरमपंथी ही सत्ता में आएं.”
“पिछले डेढ़ साल में आर्थिक विकास, रोज़गार, यूथ मैनेजमेंट जैसे एक भी असल मुद्दे पर यूनुस सरकार ने क्या काम किया है? मुझे तो कुछ नज़र नहीं आता.”
प्रोफ़ेसर त्रिपाठी कहते हैं, “देखिए जो युवा नेता हादी की हत्या हुई उसमें यह कह दिया गया कि हत्यारे भारत भाग गए. यह तो आपकी विफलता है, आपकी पुलिस की, आपकी सुरक्षा एजेंसियों की, आपके सिस्टम की विफलता है कि कोई एक युवा नेता की हत्या की साज़िश रचता है, खुलेआम मार देता है और फिर आसानी से निकल जाता है.
“हसीना के ख़िलाफ़ जो लोग या युवा आगे आए थे कि वह कोटा सिस्टम या आरक्षण को हटा नहीं रही थीं, वह भी अब निराश हैं क्योंकि जो मूलभूत मुद्दे थे उन पर इन करीब डेढ़ साल में कुछ हुआ नहीं है और आगे भी कुछ होने की उम्मीद नहीं है.”
भारत के लिए चुनौतियां
हाल ही में जारी भारत में विदेशी मामलों की एक संसदीय समिति की रिपोर्ट में कहा गया है कि 1971 की जंग के बाद भारत को बांग्लादेश में सबसे बड़े रणनीतिक संकट का सामना करना पड़ रहा है.
प्रोफ़ेसर त्रिपाठी भारत और बांग्लादेश के संबंधों के भविष्य को लेकर बहुत आशावान नहीं दिखते. वह कहते हैं, “जब तक वह कुछ रचनात्मक नहीं कर पाते, अर्थव्यवस्था की स्थिति नहीं सुधार पाते तब तक वह राजनीतिक फ़ायदे के लिए भारत का हौवा खड़ा करते रहेंगे.”
“बांग्लादेश में अगर राजनीति में स्थायित्व आता है, अर्थव्यवस्था का विकास होता है तो उन्हें भारत को साथ लेकर चलना होगा क्योंकि भारत के साथ उनका बड़ा व्यापार है. लेकिन चूंकि वहां अराजकता है और ऐसे में आर्थिक विकास होना नहीं है इसलिए भारत को बलि के बकरे की तरह इस्तेमाल किया जाता रहेगा, भारत विरोध वहां बना रहेगा.”
प्रोफ़ेसर पंत कहते हैं कि बांग्लादेश में जो कुछ हो रहा है उसमें भारत शायद ही दखल दे. वह कहते हैं, “भारत के लिए इसमें दखल देने की संभावनाएं बहुत कम हैं. क्योंकि यह बांग्लादेश का घरेलू मामला पहले है. यह बांग्लादेश के लोगों को ही तय करना है कि उन्हें प्रगतिशील रास्ते पर आगे बढ़ना है या कट्टरपंथ की राह पर.” (bbc.com/hindi)

