शिवराज न तो नड्डा हैं न नबीन…!

NFA@0298
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2019 में चूंकि जेपी नड्डा को भी ‘पूर्णकालिक’ से पहले कार्यकारी अध्यक्ष नियुक्त किया गया था, सिर्फ इसी एक आधार पर यह ‘अंदाज़ा’ लगाया जा सकता है कि नितिन नबीन सिन्हा ही भाजपा के अगले पूर्णकालिक राष्ट्रीय अध्यक्ष होने चाहिए। “अंदाज़ा” इसलिए, क्योंकि 2014 के बाद से नरेंद्र मोदी और अमित शाह ने किसी को भी “पक्की खबर” के लायक छोड़ा ही नहीं है। इन दोनों ने अपने सिवाय, अपनी पार्टी के भीतर और बाहर, सबको एक प्रकार से सिर्फ अंदाज़ा, कयास, अनुमान-अटकलें लगाने का काम दे रखा है।

बीते 11 सालों का यही निष्कर्ष है। इस दौरान सबसे ज्यादा फजीहत मीडिया की हुई है। उस कथित “गोदी मीडिया” की भी, जो 24 घंटे मौजूदा निज़ाम के ‘स्तुतिगान’ में तो लगा रहता है, लेकिन मोदी-शाह से ‘खबरें’ वो भी नहीं निकाल पाता।

सच बात तो यह है कि मोदी युग की भाजपा में ‘सूत्रों’ का टोटा हो गया है, और ‘विश्वस्त सूत्रों’ का तो लगभग खात्मा। जो बचे-खुचे सूत्र हैं, वो सिर्फ राष्ट्रवादी, सनातनी, सकारात्मक या कथित विकास-तरक्की की खबरें ही देते हैं। हालांकि, आजकल मीडिया “खबरों के चक्कर में” पड़ता भी नहीं है। उसे रोज के टास्क-एजेंडे से मतलब होता है, और वो उसको ही कम्प्लीट-फिनिश करने में भिड़ा रहता है।

इसका कारण मोदी-शाह की कड़ी व्यवस्था है, जिसने पार्टी के भीतर “ऑफ द रिकॉर्ड ब्रीफिंग” (जिस पर पूर्व मुख्यमंत्री उमा भारती एक बार लालकृष्ण आडवाणी के सामने बुरी तरह बिफर पड़ी थीं) बंद करवा दी है। अव्वल तो वे क्या करने वाले हैं, किस लाइन पर सोच रहे हैं, उनके दिमाग में क्या चल रहा है, पार्टी में किसी ‘तीसरे’ को मालूम नहीं होता। पता नहीं, तीसरे के साथ शेयर करते भी हैं कि नहीं! करते भी होंगे, तो चेता देते होंगे कि ‘भाई, ये सिर्फ आपको बता रहे हैं, यदि बाहर गई तो माना जाएगा कि आपने ही लीक की है।”

दो साल पहले, मध्यप्रदेश, राजस्थान और छतीसगढ़ में जिस तरह क्रमशः डॉ. मोहन यादव, भजनलाल शर्मा और विष्णु देव साय को मुख्यमंत्री की कुर्सी सौंपी गई, वो सबके सामने है। याद करें, पर्ची पर भजनलाल का नाम देखकर किस तरह चौंकीं थीं वसुंधरा राजे सिंधिया। ऐसे ही नितिन नबीन के नाम से चौंककर उछल पड़े होंगे कई।

विशेषकर, पार्टी के अंदर और बाहर मीडिया में वे, जो कृषि मंत्री शिवराज सिंह चौहान की सुरक्षा में बढ़ोतरी की दो दिन पहले आई खबर को राष्ट्रीय अध्यक्ष के चयन से जोड़ रहे थे। इस हद तक कि, कईयों ने तो यह मानकर ही इस खबर को फैलाया कि “मामा” ही नड्डा की जगह लेंगे। मुमकिन है, कुछ ने मन ही मन पटाखे भी फोड़ लिये हों।

मीडिया में भी इसी लाइन पर अटकलें लगाई जाने लगीं। इस सवाल पर सोचा ही नहीं गया कि शिवराज को ही अध्यक्ष बनाना होता तो मोदी शाह इतना इंतज़ार क्यों करते? नड्डा को कार्यकाल पूरा होने पर ही विदा कर दिया जाता। चूंकि, हर कुर्सी पर, हर लिहाज से अपने माफ़िक ही व्यक्ति बैठाना है, इसीलिए नड्डा के जरिए आरएसएस को साफ-साफ बताया ही जा चुका था कि “हम अपने पैरों पर खड़े हो गए हैं… और अब आपकी जरूरत नहीं।”

वो तो गाड़ी 240 पर ठहर गई, वर्ना 400 पार न सही, बीजेपी यदि इसके नजदीक पहुंच जाती तो डेढ़ साल पहले ही किसी “नए नड्डा” को बैठा दिया जाता। इतना वक्त लगा ही इसीलिए, क्योंकि मोदी-शाह को नड्डा जैसा ही कोई चाहिए था।

बिहार की बंपर जीत ने दोनों को मौका दे दिया और मोदी के विदेश रवाना होने से पहले बिहार के ही नितिन नबीन का ऐलान हो गया। शिवराज सिंह चौहान, चूंकि न तो नड्डा हैं न नबीन, इसलिए न तो कार्यकारी अध्यक्ष बनाए जाएंगे, और न ही राष्ट्रीय अध्यक्ष। हालांकि, यह कोरी अटकलबाजी है…हो सकता है शिवराज को ही अध्यक्ष बना दें, मोदी-शाह। उनके मन में क्या है, भला किसी को क्या मालूम? किसी को बताया है क्या? लिहाजा, अटकलें हैं…लगाते रहिए!!

विजय शाह का फिर गुड़ गोबर

मनुष्य का स्वभाव है, यदि उसे गलती की सज़ा न मिले तो वह कोई सबक नहीं सीखता, बल्कि ‘और गलतियां’ करने के लिए उसके हौसले बुलंद हो जाते हैं। अखबारों में अक्सर, ये शीर्षक पढ़ने को मिलता है, “कानून का डर खत्म होने से बदमाशों के हौसले बुलंद।”

मध्यप्रदेश के जनजातीय कार्य मंत्री विजय शाह के खिलाफ यदि कर्नल सोफिया कुरैशी के बारे में “गटर वाली भाषा’ का इस्तेमाल करने के लिए कोई कार्रवाई हो जाती तो शायद उन्हें कुछ सबक मिलता। वे मुंह खोलने से पहले कुछ सावधानी बरतते। लेकिन बीजेपी ने चूंकि कोई ऐक्शन नहीं लिया, सुप्रीम कोर्ट से भी कोई फैसला नहीं हुआ, लिहाजा उनके हौसले खासे बुलंदी पर हैं।

जनाब ने रतलाम में कह दिया कि सरकार 1500 रुपये के हिसाब से लाड़ली बहनों को करोड़ों रुपये दे रही है। रतलाम जिले में अगर ढाई लाख लाड़ली बहिनें हैं, तो इनमें से कम से कम 50 हजार को तो सरकार के दो साल पूरे होने पर मुख्यमंत्री का सम्मान करने आना चाहिए। दो साल में एक बार धन्यवाद तो बनता है। जो नहीं आएंगी, उनकी जांच कराएंगे। जांच पेंडिंग कर देंगे और यह पेंडिंग ही रहेगी।

शाह का आशय था, जांच के नाम पर केस पेंडिंग हो जाएगा तो खाते में पैसा नहीं आएगा। कहा जा रहा है कि शाह हालांकि, आठ बार के विधायक हैं, मगर उन्हें अपने से काफी जूनियर मोहन यादव की ‘गुड बुक्स’ में आना है। लेकिन, मुख्यमंत्री को प्रसन्न करने के चक्कर में “गुड़ गोबर” कर बैठे।

बीजेपी के कर्मचारी और होंठों की हरकत

जिगर मुरादाबादी ने लिखा है- “एक ऐसा भी वक़्त होता है, मुस्कुराहट भी आह होती है।” भोपाल में बीजेपी के प्रदेश मुख्यालय में बरसों से ड्यूटी करने वाले कर्मचारियों का इन दिनों कुछ ऐसा ही हाल है। बेचारे किससे कहें और क्या कहें। दो दशक से प्रदेश में पार्टी की सरकार है। हर काम आला दर्जे का है। वो दिन गए, जब बीजेपी के पदाधिकारी और नेता फाके करते और लत्ता लपेटा करते थे।

पुराने या बुजुर्ग नेता आजकल के पदाधिकारियों और नेताओं को देखते हैं तो फूले नहीं समाते। खुशी के मारे कुप्पा हो जाते हैं। याद करते हैं उन दिनों को जब पार्टी के काम में चने-मुरमुरे उनके संगी-साथी हुआ करते थे। अब तो धन की कोई कमी नहीं है। सबसे ज़्यादा चंदा पार्टी को मिलता है। मेंबरों के मामले में भी वह सबसे अमीर है।

नेताओं-पदाधिकारियों की लकदक गाड़ियां, उनका पहनावा और भाव-भंगिमाएं सबकुछ बयां कर देती हैं। जो पार्टी 100 साल की मजबूती वाले “दीनदयाल परिसर” को उसकी उम्र के 60-70 साल पहले ही तुड़वाकर नया बनवा रही हो, कल्पना भी नहीं की जा सकती कि उसके पास संसाधनों की कितनी बड़ी ‘खान’ होगी। और, वो भी 100 करोड़ रुपये की लागत से।

पार्टी का ऐसा भव्य कार्यालय, जिसकी छत पर उड़न खटोले के उतरने का इंतज़ाम भी किया जाने वाला हो। लेकिन, जब बीजेपी मुख्यालय में काम करने वाला कर्मचारी रोज सुबह ड्यूटी पर आता है और सड़क के उस पार भव्य निर्माणाधीन बिल्डिंग को देखता है तो “आह” भरकर रह जाता है।

इस साल, दरअसल कर्मचारियों की वेतन वृद्धि नहीं हुई है। उल्टे छंटनी की जा रही है। जो बरसों से सेवा दे रहे हैं, उनका ईपीएफ भी नहीं कट रहा है। पारिवारिक जिम्मेदारियां बढ़ गई हैं, पर आय नहीं बढ़ रही है। नया अध्यक्ष शुरुआत में बातें तो बहुत मीठी करता है, पर कर कुछ नहीं पाता। कुलमिलाकर, कर्मचारी निराश हैं। इस माहौल का कुछ असर उस गीत पर भी पड़ रहा है, जो “अंकुश” फिल्म के लिए अभिलाष ने लिखा था।

बोल हैं- ‘इतनी शक्ति हमें देना दाता, मन का विश्वास कमजोर हो ना।’ सुना है, हर माह के पहले सोमवार को पार्टी कार्यालय में यह गीत गाया जाता है। पहले लोग उत्साह से गाते थे, इधर कुछ समय से सिर्फ “होंठों की हरकत” (लिपसिंक) हो रही है।

मोहन भागवत, संतोष वर्मा और बीजेपी की चिंताएं

आईएएस संतोष वर्मा, जो अजाक्स (अनुसूचित जाति-जनजाति अधिकारी-कर्मचारी संघ) के प्रदेश अध्यक्ष हैं, के एक बयान ने राज्य में सत्तारुढ़ भाजपा के सामने कमोबेश उसी तरह की परेशानी पैदा कर दी है, जैसी 10 वर्ष पूर्व आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत के एक बयान के कारण हुई थी।

भागवत ने आरक्षण व्यवस्था की समीक्षा और इस पर विचार की जरूरत बताकर बीजेपी के सामने बड़ा संकट पैदा कर दिया था। पार्टी को रफ़ू करने में खासी मेहनत करना पड़ी थी। तत्कालीन मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को कहना पड़ा था- “कोई माई का लाल आरक्षण समाप्त नहीं कर सकता।” बावजूद इसके, देश भर में नीचे तक संदेश चला गया कि भाजपा आरक्षण व्यवस्था समाप्त कर देगी।

कई लोग तो अब भी यही मानते हैं कि 2018 के विधानसभा चुनावों में भाजपा, दरअसल भागवत के “आरक्षण” संबंधी बयान की वजह से ही बहुमत में आते-आते रह गई। 2020 में डिप्टी कलेक्टर से आईएएस बने संतोष वर्मा ने भी आरक्षण की जरूरत के बारे में ही बयान दिया, लेकिन अपने ढंग से। कहा- “जब तक कोई ब्राह्मण मेरे बेटे को अपनी बेटी दान नहीं देता या उससे संबंध नहीं बन जाए, तब तक आरक्षण जारी रहना चाहिए।”

जाहिर है, वर्मा के बयान की प्रतिक्रिया हुई। बीजेपी को वैसे भी “बनिया-बामन’ पार्टी कहा जाता रहा है। मप्र सरकार ने वर्मा को कारण बताओ नोटिस जारी कर दिया। भाजपा के दो सांसद आलोक शर्मा (भोपाल) और जनार्दन मिश्रा (रीवा) तुरंत सक्रिय हुए और मुख्यमंत्री मोहन यादव से लेकर केंद्रीय कार्मिक, लोक शिकायत एवं पेंशन राज्य मंत्री जितेंद्र सिंह को पत्र लिख डाले।

विवादित टिप्पणी के लिए शर्मा ने तो जितेंद्र सिंह को खुद पत्र सौंपा और कार्रवाई की मांग की। मिश्रा के पत्र में वर्मा की पदोन्नति और चयन पर भी सवाल खड़े किए गए हैं। आरोप है कि वर्मा ने फर्जीवाड़ा किया। अदालत ने उनको दोषी ठहराया, उनकी गिरफ़्तारी हुई, जेल में रहे और चार साल निलंबित भी। बावजूद इसके वह लाभार्थी बन गए। पदोन्नति मिल गई और बहाल भी हो गए। सब कुछ भाजपा सरकार में ही हुआ।

हैरत है, अब भाजपा के नेता और निर्वाचित प्रतिनिधि ही जांच की मांग कर रहे हैं, सवाल उठा रहे हैं। अगर, इंदौर की विशेष अदालत का आदेश फर्जी पाया गया था तो फिर वर्मा को वापस आईएएस से डिप्टी कलेक्टर रिवर्ट क्यों नहीं किया गया? उनकी बहाली कैसे हो गई?

यदि भाजपा सांसद मिश्रा का यह आरोप सही है कि वर्मा अनुसूचित जाति से हैं, पर उनको पदोन्नति अनुसूचित जनजाति वर्ग से दे दी गई तो इसका जिम्मेदार कौन है? लेकिन इन सवालों से ज्यादा भाजपा को चिंता इस बात की है कि कहीं कड़ी कार्रवाई से प्रदेश का अनुसूचित वर्ग नाराज न हो जाए और अगले चुनावों में उसे दिक्कत हो। राज्य में करीब 16% अनुसूचित जाति और 21% से अधिक अनुसूचित जन जाति की आबादी है।

इस मुद्दे पर एक हैं कैलाश और शिवराज

पूरे मध्य प्रदेश में अवैध शराब भले न बिक रही हो, लेकिन रायसेन एक ऐसा जिला है, जहां अवैध शराब से परिवार बर्बाद हो रहे हैं। बच्चों का भविष्य तबाह हो रहा है, माताओं बहनों को परेशानी हो रही है। गांव-गांव का बुरा हाल है। कांग्रेस या विपक्ष में कोई ऐसा कहता तो उसे ‘आरोप” मानकर खारिज किया भी जा सकता था, लेकिन यह कृषि मंत्री शिवराज सिंह चौहान ने कहा है।

रायसेन दरअसल, चौहान के संसदीय क्षेत्र का हिस्सा है। वे किसान संगोष्ठी में शामिल होने पहुंचे थे। कुछ महिलाओं ने उनसे शिकायत की तो उन्होंने मंच से ही अवैध शराब का मुद्दा छेड़कर परोक्ष रूप से प्रशासन की भूमिका पर सवाल खड़े किए। अफसरों से कहा कि अवैध शराब का कारोबार करने वालों को पीट-पीटकर ठीक करें।

बहरहाल, कैलाश विजयवर्गीय के बाद शिवराज बीजेपी के दूसरे बड़े नेता हैं, जिन्होंने नशे के अवैध कारोबार के जरिए मोहन यादव सरकार के कामकाज पर अंगुली उठाई है। सवाल इस बात का है कि “भोलेनाथ” के नाम वाले दोनों नेताओं ने नशे के अवैध कारोबार को ही क्यों टारगेट किया? असल में निशाने पर कौन है?



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