भारत-रूस 23 वें शिखर सम्मेलन में रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन और भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बीच वार्ता ऐसे माहौल में हुई है, जब भारत अमेरिका से दंडात्मक ट्रैरिफ से रियायत चाहता है और रूस पर यूक्रेन के साथ शांति वार्ता करने का दबाव है। जाहिर है, ऐसी जटिल भू-राजनीतिक परिस्थिति में पुतिन और मोदी की मुलाकात पर दुनिया की नजर थी। हालांकि यह भी सच है कि यह वार्षिक शिखर सम्मेलन है और इसकी बुनियाद चौथाई सदी पहले इस सहस्राब्दी की शुरुआत में वर्ष 2000 में राष्ट्रपति के बतौर पुतिन की पहली भारत यात्रा के दौरान हुई थी।
इसके बावजूद, जैसा कि दोनों नेताओं के बीच हुई बातचीत के बाद जारी संयुक्त बयान से साफ है कि दोनों देशों का ध्यान कारोबार पर है। 2030 तक दोनों देश आपसी कारोबार को मौजूदा 69 अरब डॉलर से बढ़ाकर 100 अरब डॉलर तक ले जाना चाहते हैं। लेकिन हकीकत यह भी है कि दोनों देशों के बीच व्यापार अभी रूस की ओर झुका हुआ है। इसकी वजह भी साफ है कि भारत तेल से लेकर हथियारों तक के लिए रूस पर निर्भर है। बेशक,भारत दवा और खेती जैसे क्षेत्रों में रूस के साथ निर्यात बढ़ाना चाहता है, लेकिन इसके नतीजे आने में कुछ वर्ष लगेंगे।
पुतिन के भारत प्रवास के दौरान याद दिलाया गया है कि भारत और रूस पच्चीस से साल रणनीतिक साझेदार हैं। दरअसल भले ही इस बात की दुहाई दी जाए कि दोनों देशों के रिश्ते ऐतिहासिक हैं, लेकिन वास्तविकता यह है कि आज का रूस सोवियत रूस के जमाने वाला रूस नहीं है। पुतिन का रूस उस समाजवादी ढांचे से बाहर आ चुका है, जिससे नेहरू और इंदिरा के जमाने में रिश्ते परवान चढ़े थे।
यही नहीं, पुतिन का रूस सच्चे अर्थों में एक लोकतांत्रिक देश भी नहीं है। जैसा कि वहां विपक्ष की हालत को देखकर अंदाजा लगाया जा सकता है। यही नहीं. पुतिन ने बीते पच्चीस वर्षों में सत्ता पर अपनी पकड़ को स्थायी तौर पर मजबूत करने के लिए अपनी सुविधा से प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति जैसे पदों की अदला-बदली तक की है।
दूसरी ओर भारत भी पहले जैसा भारत नहीं है, जैसा कि पुतिन के सम्मान में दिए गए आधिकारिक भोज में राज्यसभा में विपक्ष के नेता मल्लिकार्जुन खड़गे और लोकसभा में विपक्ष के नेता राहुल गांधी को मोदी सरकार ने आमंत्रित करना जरूरी नहीं समझा। यह भारत की लोकतांत्रिक परंपरा के खिलाफ है। हालांकि इसके साथ ही राहुल को लेकर भी सवाल हैं कि जब वह खुद कई आधिकारिक कार्यक्रमों शामिल होना जरूरी नहीं समझते, तो उन्हें ऐसी अपेक्षा क्यों करनी चाहिए? वास्तव में दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के रूप में सरकार के इस रवैये से अच्छा संदेश नहीं जाता।
बहरहाल, रूस आज भारत का विश्वसनीय साथी बन कर उभरा है, तो इसकी एक बड़ी वजह यह भी है कि यूक्रेन युद्ध के बाद यूरोप और अमेरिका द्वारा अलग-थलग कर दिए जाने के बावजूद भारत ने उसका साथ नहीं छोड़ा। यहां तक कि अमेरिकी धमकियों के बावजूद भारत ने रूस से कच्चा तेल खरीदा है।
पुतिन ने कहा है कि वह भारत को निर्बाध तेल की आपूर्ति कर सकते हैं। दरअसल तेल पर ही बड़ा पेंच फंसा हुआ है। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने रूसी तेल की खरीद से नाराज होकर भारत दंडात्मक टैरिफ लगा रखा है। खुद ट्रंप दूध के धुले नहीं है, लेकिन उन्होंने यहां तक आरोप लगाया था कि तेल खरीद कर भारत रूस को मदद पहुंचा रहा है।
यह नहीं भूलना चाहिए कि अमेरिका के साथ भी भारत के रिश्ते की बुनियाद में कारोबार ही है। क्या यह सच नहीं है कि अमेरिका हो या रूस भारत को एक बड़े बाजार की तरह ही देखते हैं? असल में यही मोदी सरकार की विदेश नीति की परीक्षा की भी घड़ी है कि वह रूस और अमेरिका के साथ रिश्ते में कैसे संतुलन बनाती है।

