पाकिस्तान में लौटी संस्कृत, लाहौर विवि में नियमित कोर्स
14-Dec-2025 10:21 PM
लाहौर, 14 दिसंबर। भारत-पाक विभाजन के बाद पहली बार पाकिस्तान के किसी विश्वविद्यालय में संस्कृत भाषा की औपचारिक पढ़ाई शुरू हुई है। लाहौर यूनिवर्सिटी ऑफ मैनेजमेंट साइंसेज़ (लम्स) ने संस्कृत का चार क्रेडिट वाला नियमित पाठ्यक्रम शुरू किया है, जो पहले एक सीमित अवधि के वीकेंड वर्कशॉप के रूप में शुरू हुआ था।
इस पहल की शुरुआत लगभग तीन महीने पहले एक सप्ताहांत कार्यक्रम से हुई थी, जिसे छात्रों, शोधकर्ताओं, वकीलों और शिक्षाविदों के लिए खोला गया था। उम्मीद से कहीं अधिक प्रतिक्रिया मिलने के बाद इसे विश्वविद्यालय के नियमित पाठ्यक्रम में शामिल कर लिया गया। विश्वविद्यालय प्रशासन का कहना है कि यदि रुचि इसी तरह बनी रही तो वर्ष 2027 तक संस्कृत को पूरे शैक्षणिक वर्ष का विषय बनाने की योजना है।
लम्स के गुरमानी सेंटर के निदेशक डॉ. अली उस्मान क़ासमी के अनुसार, पाकिस्तान में संस्कृत से जुड़ी विरासत बेहद समृद्ध है, लेकिन उस पर लंबे समय से कोई अकादमिक काम नहीं हुआ। उन्होंने बताया कि पंजाब यूनिवर्सिटी की लाइब्रेरी में संस्कृत की ताड़पत्र पांडुलिपियों का एक बड़ा संग्रह मौजूद है, जिसे 1930 के दशक में विद्वान जे.सी.आर. वूल्नर ने सूचीबद्ध किया था। विभाजन के बाद से इन पांडुलिपियों पर किसी पाकिस्तानी विद्वान ने गंभीर शोध नहीं किया और अब तक विदेशी शोधकर्ता ही इनका उपयोग करते रहे हैं।
डॉ. क़ासमी का कहना है कि स्थानीय स्तर पर संस्कृत के विद्वान तैयार होने से यह स्थिति बदलेगी। उन्होंने यह भी बताया कि लम्स भविष्य में महाभारत और भगवद्गीता जैसे ग्रंथों पर भी पाठ्यक्रम शुरू करने की योजना बना रहा है।
इस संस्कृत पाठ्यक्रम को पढ़ाने की जि़म्मेदारी फ़ॉर्मन क्रिश्चियन कॉलेज के समाजशास्त्र के एसोसिएट प्रोफेसर डॉ. शाहिद रशीद निभा रहे हैं, जिन्होंने इसके लिए अवकाश लिया है। डॉ. रशीद की संस्कृत में रुचि कई वर्षों पुरानी है। उन्होंने पहले अरबी और फ़ारसी सीखी और बाद में संस्कृत का अध्ययन शुरू किया। पाकिस्तान में न तो शिक्षक उपलब्ध थे और न ही पाठ्य सामग्री, इसलिए उन्होंने ऑनलाइन माध्यमों से कैम्ब्रिज और ऑस्ट्रेलिया के संस्कृत विद्वानों से अध्ययन किया।
डॉ. रशीद बताते हैं कि छात्रों को शुरुआत में भाषा कठिन लगी, लेकिन व्याकरण की संरचना समझ में आते ही वे उसमें रुचि लेने लगे। उनका कहना है कि संस्कृत के ‘सुभाषित’ श्लोक पढ़ते समय कई छात्र यह जानकर चकित रह गए कि उर्दू की अनेक शब्दावली संस्कृत से निकली है। कई छात्रों को यह भी पहली बार पता चला कि संस्कृत और हिंदी एक ही भाषा नहीं हैं।
लम्स प्रशासन के अनुसार, यह पहल विश्वविद्यालय की व्यापक भाषा नीति का हिस्सा है, जिसमें पहले से ही सिंधी, पश्तो, पंजाबी, बलोची, अरबी और फ़ारसी जैसी भाषाएँ शामिल हैं। विश्वविद्यालय का मानना है कि दक्षिण एशिया की साहित्यिक, दार्शनिक और सांस्कृतिक परंपराओं को समझने के लिए संस्कृत जैसे शास्त्रीय भाषा से जुडऩा ज़रूरी है।
डॉ. क़ासमी का कहना है कि अनेक इतिहासकार मानते हैं कि वैदिक साहित्य की रचना इसी क्षेत्र में हुई थी। ऐसे में इन ग्रंथों को उनकी मूल भाषा में पढऩा इस क्षेत्र की साझा विरासत को समझने का महत्वपूर्ण माध्यम हो सकता है।
राजनीतिक और धार्मिक संवेदनशीलताओं के बावजूद इस पहल को लेकर पाकिस्तान के अकादमिक हलकों में उत्सुकता देखी जा रही है। डॉ. रशीद कहते हैं कि लोग उनसे अक्सर पूछते हैं कि वे संस्कृत क्यों सीख रहे हैं। उनका जवाब होता है कि संस्कृत पूरे क्षेत्र की साझा भाषा और विरासत है, न कि किसी एक धर्म की। प्रसिद्ध संस्कृत व्याकरणाचार्य पाणिनि का जन्मस्थल भी इसी भूभाग में माना जाता है।
उनका मानना है कि यदि दक्षिण एशिया में भाषाओं को दीवारों की बजाय पुल के रूप में देखा जाए, तो आपसी समझ और संवाद के नए रास्ते खुल सकते हैं। उन्होंने कहा कि जैसे भारत में अधिक लोग अरबी सीखें और पाकिस्तान में लोग संस्कृत, तो यह पूरे क्षेत्र के लिए एक सकारात्मक शुरुआत हो सकती है।
पाकिस्तान में संस्कृत की इस वापसी को कई लोग केवल एक अकादमिक घटना नहीं, बल्कि सांस्कृतिक संवाद की एक नई संभावना के रूप में देख रहे हैं, जो लंबे समय से जमी हुई ऐतिहासिक और राजनीतिक दूरी के बीच एक अलग तरह की बातचीत का रास्ता खोल सकती है।

