
हममें से ज़्यादातर लोग मानते आए हैं कि 18 की उम्र में हम बड़े हो जाते हैं। कुछ लोग थोड़ा उदार होकर 25 साल तक मान लेते हैं कि दिमाग़ पूरी तरह परिपक्व हो जाता है। मगर हाल ही में कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय द्वारा किए गए एक बड़े अध्ययन ने इस सोच को चुनौती दे दी है। शोधकर्ताओं ने पाया कि मानव दिमाग़ पाँच अलग-अलग चरणों से होकर गुजरता है और वह चरण, जिसे हम ‘किशोरावस्था’ कहते हैं, असल में बीसवें दशक के अंतिम वर्षों से लेकर शुरुआती तीसवें साल तक फैला हुआ हो सकता है।
कैसे पता चला?
शोध का आधार था हज़ारों लोगों के दिमाग़ की एमआरआई स्कैनिंग। वैज्ञानिकों ने देखा कि दिमाग़ के अलग-अलग हिस्से आपस में कैसे बातचीत करते हैं, यानी दिमाग़ की “वायरिंग” किस उम्र में कैसे बदलती है। इन पैटर्नों का अध्ययन करने पर चार बड़े मोड़ दिखे : लगभग 9 साल, 32 साल, 66 साल और 83 साल की उम्र पर। इन मोड़ों के आधार पर उन्होंने जीवन को पाँच चरणों में बांटा:
बचपन, किशोरावस्था/युवा अवस्था, प्रौढ़ अवस्था, प्रारंभिक वृद्धावस्था, और अंतिम वृद्धावस्था।
सबसे चौंकाने वाली बात यह रही कि दिमाग़ का वह हिस्सा जो निर्णय लेने, भावनाएँ नियंत्रित करने, जोखिम समझने और दीर्घकालिक सोच से जुड़ा है , वह लगातार 30 साल की उम्र तक मज़बूती पकड़ता रहता है।
आम लोगों के लिए इसका मतलब क्या है?
पहला संदेश बहुत स्पष्ट है:
परिपक्वता एक धीमी प्रक्रिया है।
दिमाग़ 18 पर “तैयार” नहीं हो जाता; यह सफ़र बहुत लंबा चलता है। इसलिए युवा लोगों के अनुभवों, गलतियों, भावनात्मक उतार-चढ़ाव और करियर चुनौतियों को समझते समय यह वैज्ञानिक सच्चाई मददगार हो सकती है।
दूसरा संदेश यह है कि दिमाग़ के बदलते चरण अवसर भी देते हैं और जोखिम भी।
जब दिमाग़ तेज़ी से बदल रहा होता है, तब सीखना आसान होता है, लेकिन तनाव, नशे, और मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी संवेदनशीलता भी बढ़ जाती है। यही कारण है कि कई मानसिक बीमारियाँ बीसवें दशक में शुरू होती हैं , ठीक उसी समय जब दिमाग़ सबसे ज्यादा री-वायरिंग कर रहा होता है।
इस अध्ययन को यह कहने का लाइसेंस नहीं है कि “30 साल तक सब बच्चे हैं।”
कानूनी और सामाजिक तौर पर वयस्क होने का मतलब केवल दिमाग़ की वायरिंग से तय नहीं होता। अनुभव, परवरिश, शिक्षा, माहौल, यह सब मिलकर परिपक्वता तय करते हैं। यह शोध किसी व्यक्ति को जज करने के लिए नहीं, बल्कि इंसानी विकास को बेहतर ढंग से समझने के लिए है।
मानव दिमाग़ की कहानी किसी छोटी किताब की तरह नहीं, बल्कि एक लंबा उपन्यास है, जिसमें हर दशक में नए अध्याय लिखे जाते हैं। यह अध्ययन हमें यही याद दिलाता है कि इंसान का विकास एक सतत प्रक्रिया है। और शायद यही वजह है कि हमें युवाओं के फैसलों, गलतियों और संघर्षों को थोड़ा ज्यादा धैर्य और संवेदनशीलता के साथ देखना चाहिए।

