
-रविन्द्र श्रीवास्तव
छत्तीसगढ़ राज्य को जन्मे पच्चीस वर्ष हुए। आनन्द एवं आयोजन का दिन है उसी तरह जैसे जन्मे बालक या बालिका के युवा अवस्था के प्राप्त कर लेने पर। वह युवा या युवती जो शारीरिक रूप से विकास को प्राप्त है, आकर्षक है और जिसने लगभग लगभग एक आवश्यक स्तर की शिक्षा भी प्राप्त कर ली है। लेकिन जिसकी जीवन यात्रा जिम्मेदारियों से भरी अब इसके बाद प्रारंभ होती है। इसके बाहु में बल है, ललाट में तेजस्व है, आँखों में सपने हैं मगर उसे बुद्धि और समझ की भी आवश्यकता है। इसी तरह हमारा राज्य युवा अवस्था को प्राप्त हो गया है। इसका शारीरिक विकास तो होता दिखा है लेकिन बहुत और की ज़रूरत है। इसकी यात्रा में अभी प्रथम चरण इसने पूरा किया है। यह इसकी यात्रा का आरंभ है, अंत नहीं। कुछ सपने पूरे हुए हैं, कुछ होने की राह में हैं और कुछ को पूरा होने में समय लगेगा। अगर मनोइच्छा है तो जरूर पूरे होंगे। मगर यह सपना आम आदमी को देखना होना होगा और उसे ही पूरा करना होगा। राजनीतिक एवं प्रशासनिक तंत्र तो केवल साधन मात्र है। उन पर निर्भरता आवश्यकता से अधिक व्यर्थ है एवं अनुचित भी। अगर हम चाहते हैं कि हमारे घर के साथ साथ, घर का बाहर एवं आस पास साफ-सुथरा हो तो यह जिम्मेदारी हमें स्वयं लेनी होगी।
बहरहाल, जब पच्चीस वर्ष का युवा बड़ा सफऱ आरंभ करने के पूर्व एक चौराहे पर खड़ा होता है तो उसे एक समावलोकन और आत्मचिंतन अवश्य करना चाहिए; क्या हासिल किया और क्या करना है? मैं मानता हूँ मेरी तरह बहुत से लोग इस अवसर पर बहुत कुछ सोचते होंगे। ऐसा ही नहीं बल्कि और अच्छा भी सोचते होंगे। सोचने के अलावा चलिए आसपास देखें भी।
एक हिस्से में सडक़ें चौड़ी हो गई हैं मगर यातायात सुरक्षित नहीं है, नई ऊँची ऊँची इमारतें खड़ी हो गईं हैं मगर घर नहीं है, जगमगाहट है, चकाचौंध है बिजली की लेकिन दिव्य रोशनी नहीं है; एक वर्ग समृद्ध हुआ है, धनवान और अधिक धनवान हुआ है साथ बलवान भी हुआ है; प्रभावशाली है, शक्ति का केंद्र है, मगर बड़ी संख्या में अभागे लोग अभी भी न्यूनतम जीवन स्तर को जीने के लिए सूनी आँखों से टकटकी लगाए बैठे हैं; उनकी आशा निराशा में बदल रही है। बड़े-बड़े बाजार, शॉपिंग माल में महंगे ब्रांड के माल बिक रहे हैं, वहीं छोटे छोटे बाजार जहाँ ताजा फल सब्जियां मिलती हैं, उजड़ रहे हैं। कहीं एक वर्ग के लोग बड़े भोग विलास के साथ भोजन करते हैं और मजे की बात है जो खाते हैं उससे अच्छा अपने पालतू श्वान को खिला देते हैं या बचा हुआ कूड़े में फेंक देते हैं। वहीं बहुत से लोग कहीं कहीं हफ़्ते में लगने वाले हाट में नून चाउर खरीदकर गुज़ारा करने की कोशिश करते हैं। ऐसी दशा को मैं विकास नहीं मानता। इसे एक दुर्भाग्यपूर्ण पैराडॉक्स मानता हूँ। ऐसा दृश्य मुझे वैसा ही लगता है जैसे अमीर पिता के धन का दोहन कर अक्सर उनके सपूत कपूत धन प्रदर्शन करते हुए शहरों में एवं आसपास उछलकूद करते दिखते हैं। छत्तीसगढ़ में अपार नैसर्गिक प्राकृतिक धन संपदा है, कुछ लोग इसका दोहन अपनी धन संपदा के लिए करने में सफल हैं। वो लोग विकास का चेहरा नहीं हो सकते।
मैं मानता हूँ राज्य के अंदर अधोसंरचना के विकास के अलावा, आम नागरिक का व्यक्तिगत बौद्धिक, सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक विकास आवश्यक है। समग्र रूप से हर व्यक्ति का जीवन स्तर विकसित होना चाहिए। गरीबी भुखमरी नाम लेने वाला भी कोई न हो। मैं चाहता हूँ, राज्य एक समृद्ध संस्कृति का केंद्र बने, बौद्धिक क्षमता, सोच विचार की शक्ति बढ़े। सकारात्मक प्रतियोगिता का जज्बा हर व्यक्ति के अंदर जागृत हो। मानवता के लिए कुछ कर गुजरने की आग अंदर जल उठे। उपलब्धियों के नए कीर्तिमान व्यक्ति विशेष के बनें। सोच में विज्ञान का समावेश हो, अंधविश्वास का अंधेरा नहीं। जिनमें सामर्थ्य है वे समाज शोषक नहीं समाज सेवक बनें। राज्य में तंत्र हावी न हो बल्कि प्रजा के लिए प्रजा के अधीन हो। लोक नीतियों का निर्माण आम जनता की रायशुमारी से, उनकी भागीदारी से पारदर्शिता के साथ विशुद्ध मन एवं प्रण के साथ हो। हर सरकारी निर्णय का प्रयोजन लोभ लुभावन न हो ; कुछ कठोर, अप्रिय निर्णय भी हों। लोकप्रियता की लालसा में सर्वहारा वर्ग का अहित न हो। तंत्र का मंत्र हो; अस्पताल, स्कूल, कॉलेज को धर्म स्थलों से अधिक महत्व मिले। धर्म और भक्ति के नाम पर स्मारक न बनाए जाएं, प्रभु का वास किसी स्थान विशेष पर नहीं बल्कि हृदय में हो। आस्था की आज़ादी हो। धार्मिक रीतियों का अर्थ मन में पीड़ा प्रेम और करुणा हो और ये सब व्यक्ति पर छोड़ दिया जाए। उस पर भावना के तोल-मोल में बोझ न लादा जाये।
शैक्षणिक संस्थाओं की संख्या के साथ शिक्षा की गुणवत्ता बढ़े ; केवल पैसे लेकर डिग्री बाँटने की फैक्ट्री बनकर न रह जाएँ। शिक्षा का रूप- स्वरूप, मानदंड, कार्यक्रम, शिक्षाविदों के हाथ में रहे। सरकारी तंत्र की भागीदारी केवल उतनी हो जितनी अर्थ व्यवस्था मुहैया कराने के लिए जरूरी। सरकार के लिए स्वास्थ्य एवं शिक्षा के मामले सर्वोच्च प्राथमिकता के हों। योजनाओं का रूप प्रदर्शन नारों और पोस्टरों से नहीं, जमीनी हकीकत से हो।
लाख हम विकास और समृद्धि का दंभ भर लें, लेकिन सब कुछ अधूरा है जब तक उच्च स्तर का बौद्धिक विकास हर व्यक्ति विशेष का ना हो और उसके बल पर समाज और प्रदेश का। बौद्धिकता से ही नैतिकता का और नैतिकता से ही चरित्र का निर्माण हो सकता है। बौद्धिक विकास से ही जीवन के मूल्य को समझा जा सकता है और तभी एक आदर्श नागरिक बोध (सिविक सेंस) हासिल हो सकता है ; उसके बिना समाज अविकसित-अव्यवस्थित ही रहेगा। भ्रष्टाचार एवं अन्य कुरीतियों से संघर्ष केवल चारित्रिक एवं नैतिक बल से ही किया जा सकता है।
चाहे वो जीवन के रहन-सहन का स्तर हो या लाइफ स्टाइल का बेढंगा ढंग या नैसर्गिक वातावरण का विघटन, इसने सभी वर्ग के लोगों में शरीर की बीमारी को बढ़ाया है। भयंकर किस्म की बीमारियों से लोग पीडि़त हैं। समर्थ को इलाज और शेष लाइलाज है । यह तंत्र की विफलता तो है ही ,एक गंभीर विडंबना भी है। एक वर्ग तरण ताल में तैरने की विलासिता भोगता है, और एक वर्ग ऐसा भी है जहाँ मनुष्य एवं गाय बैल, भैंस, पशु मवेशी एक ही तालाब में नहाते हैं और उसी का पानी भी पीते हैं। यह कलंक है। छत्तीसगढ़ स्वस्थ होगा तो सब कुछ होगा।
न्यायदान महादान है। पवित्र हाथों से सुपात्र जनों के लिए। न्याय के हाथ अपवित्र नहीं, लंबे होने चाहिए। विवाद कम होने चाहिए और अगर हों तो पीडि़तों को बिना किसी लाग लगाव के, बिना किसी पूर्व मत से प्रभावित न्याय मिले; केवल कागज में लिखे हस्ताक्षरित आदेश नहीं। न्याय समुचित और अर्थ पूर्ण होना चाहिए शॉर्ट कट के द्वारा नहीं। मुकदमों का निपटारा न हो, हर मुकदमे में सच्चा न्याय हो गरीबों और कमजोर को न्याय की आवश्यकता जीवन से जुड़ी है, व्यापारी और कॉर्पोरेट के लिए उनकी बैलेंस शीट से। इस आधार और प्राथमिकता तय होनी चाहिए। न्याय व्यवस्था से जुड़े लोग बेहद संवेदनशील हों। व्यवसाय में स्तर की गुणवत्ता, श्रम की क्षमता, व्यावसायिक दक्षता, निर्भीकता, स्वस्थ एवं व्यापक स्तर पर प्रतियोगिता एवं उत्तरदायित्व की भावना, सबसे ज़्यादा अपने अन्नदाता के प्रति। धन उपार्जन तो हो ही जाना है। यह भी एक लक्ष्य हो, इसमें कोई बुराई नहीं, मगर सीधे साधे ढंग से।
(लेखक छत्तीसगढ़ के पहले महाधिवक्ता रह चुके हैं, अभी सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता हैं)

