बिहार के चुनावी मुद्दे?

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बिहार के चुनावी मुद्दे?


10-Oct-2025 10:47 PM

-आर.के.जैन

रोजगार, उद्योग, शिक्षा, स्वास्थ्य। बिहार में फिर लापता है। असल मुद्दे से भटक गया है बिहार का चुनाव।

आज पूरी दुनिया में शासन के बेहतरीन मॉडल के रूप में पश्चिमी लोकतांत्रिक व्यवस्था को स्वीकार कर लिया गया है। जहां भी यह व्यवस्था लागू है, वहां हर चुनाव का मुद्दा हालात में बदलाव का वाहक होता है। लोग जब मतदान केंद्रों पर वोट डालने जाते हैं तो उनके मन में बदलाव का चेहरा गहरे तक पैठ बनाए होता है।

लेकिन क्या बिहार के मतदाताओं को इन मानकों पर देखा-परखा जा सकता है?

आजादी के बाद पहले तीन दशकों तक बिहार भारत का सबसे तेजी से आगे बढ़ता हुआ राज्य था । उद्योगों से लेकर शिक्षा और कृषि तक। लेकिन इसके बाद इसकी गाड़ी पटरी से उतर गई।

बिहार के पहले कांग्रेस के मुख्यमंत्री श्री कृष्ण सिंह थे उनका राज्य पर शासन 23 सालों तक चला । इसमें उन्होंने सामाजिक और आर्थिक सुधारों पर काफी काम किया । इस दौर में बिहार में कई बड़े उद्योग जैसे बोकारो स्टील प्रोजेक्ट, थर्मल पावर प्लांट्स, फर्टिलाइजर रिफाइनरी और टिस्को (जो बाद में टेलको बना) जैसे बड़े औद्योगिक प्रतिष्ठान स्थापित हुए। शिक्षा के क्षेत्र में भी बिहार में बड़े कदम उठाए। अच्छे कॉलेज और बिहार इंस्टिट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी जैसे प्रीमियर इंस्टीट्यूट की स्थापना की गई।

बिहार में 1950 और 1980 के बीच औद्योगीकरण की कोशिशें की गईं, जिसमें डालमियानगर में बड़े कृषि-औद्योगिक शहर का विकास, बरौनी में तेल रिफाइनरी, उर्वरक संयंत्र, थर्मल पावर स्टेशन, फतुहा में मोटर स्कूटर संयंत्र और मुजफ्फरपुर में बिजली संयंत्र स्थापित किए गए। बिहार ने चीनी उत्पादन और बागवानी में भी अच्छा प्रदर्शन किया। 1960 के दशक के मध्य तक भारत के कुल चीनी उत्पादन का 25त्न बिहार से था।

लोकतंत्र की जननी के रूप में प्रतिष्ठित बिहार की धरती उलटबांसियों से भरी पड़ी है। साक्षरता दर के लिहाज से आज का बिहार देश के कई राज्यों से पीछे है। लेकिन यहां के वोटरों में राजनीतिक जागरूकता नजर आती है। ऐसी स्थिति में बिहार की स्थिति बेहतर होनी चाहिए थी। मगर हकीकत इससे दूर है। आज भी राष्ट्रीय स्तर पर बिहार की छवि मजदूर-कामगार सप्लायर के रूप में है।

मराठी मानुष के नाम पर राज ठाकरे जैसों की राजनीतिक सेना बिहारी मूल के छात्रों और कामगारों पर कभी रोजगार , तो कभी स्थानीय संस्कृति की रक्षा के नाम पर हमले करती है ।

स्पष्ट है कि उसके पीछे बिहार को लेकर बनी विशेष छवि का असर है। लेकिन बिहार मे इस छवि को बदलने की गंभीर सोच और मुद्दे पर शायद ही 90 के दशक के बाद कोई चुनाव लड़ा गया हो।

आज देश में प्रति व्यक्ति आय एक लाख 14 हजार 710 रुपये सालाना है, लेकिन बिहार का औसत निवासी आम भारतीय की तुलना में एक तिहाई से भी कम यानी महज 32 हजार 227 रुपये ही कमा पाता है।

जो कर्नाटक राज्य कभी बिहार से काफी पीछे था, वहां की प्रति व्यक्ति औसत आय राष्ट्रीय औसत से भी ज्यादा है। कर्नाटक में प्रति व्यक्ति आय एक लाख नब्बे हजार रुपये सालाना है। बिहार का उपहास उड़ाने का मौका अन्य राज्यों के लोगों को इसलिए मिलता है, क्योंकि उनके राज्यों की प्रति व्यक्ति आय बिहार से करीब छह गुना ज्यादा तक है, यानी एक लाख 80 हजार रुपये सालाना है।

आजादी के तत्काल बाद के आंकड़ों को देखें तो देश के चीनी उत्पादन में बिहार का योगदान चौथाई था, जबकि धान और गेहूं की पैदावार में उसकी भागीदारी 29 प्रतिशत थी। देश का आधा बागवानी उत्पादन बिहार में ही होता था। तब बिहार में चीनी और वनस्पति तेल उद्योग फलता-फूलता कारोबार था। तब यहां डालमियानगर और टाटानगर जैसे कागज और स्टील उत्पादन के अहम केंद्र थे। लेकिन बाद के दिनों में बिहार की स्थिति बिगड़ती गई।

नब्बे के दशक में सामाजिक न्याय के शासन ने पिछड़ी और दलित जातियों को आवाज तो दी, लेकिन कानून-व्यवस्था का सवाल गहरा होता चला गया। इसकी वजह से विकास की रफ्तार थमी। उद्योगों ने बिहार से किनारा कर लिया। सामाजिक न्याय के खिलाड़ी इसके लिए कथित ब्राह्मणवादी मानसिकता को जिम्मेदार ठहरा कर एक तरह से अपनी कमियों को ढंकने का बहाना तलाश लेते हैं।

बिहार में राष्ट्रीय औसत से ज्यादा शिशु मृत्यु दर, पलायन की विभीषिका, उत्तरी बिहार को लगातार चोट पहुंचाने वाली बाढ़ की समस्या, ग्रामीण सडक़ों की बदहाली, कृषि उपज आधारित उद्योगों के विकास, शिक्षा की गिरती दशा से जुड़े सवालों को चुनावी मुद्दा होना चाहिए था।

इस पर भी विचार होना चाहिए कि लोकतंत्र की स्टीलफ्रेम नौकरशाही में बिहार मूल के लोगों की अच्छी-खासी संख्या होने के बावजूद बिहार की मजदूर सप्लायर छवि क्यों नहीं बदल पा रही है ?

उस नौकरशाही का अपनी माटी के विकास में कितना और कैसा योगदान रहा है?

लेकिन ये सवाल अब बिहार के चुनावों में मुद्दा नहीं बनते। सामाजिक न्याय के नाम पर जातियां गोलबंद तो हैं, लेकिन असल मुद्दे उनके विमर्श से गायब हैं।

हालाँकि बिहार की राजनीति मे यद्यपि इन मुद्दों की ओर कुछ ध्यान तो गया है, लेकिन यह बदलाव आंशिक ही है।

लगभग दो दशक के नीतीश के शासन काल में बिहार में कानून व्यवस्था में कुछ सुधार तो हुआ है पर विकास के आधारभूत मामलों में बिहार पिछड़ता ही चला गया और आज बिहार देश का सबसे पिछड़ा और गरीब राज्य है।

किसी राज्य के लिए दो दशक कम नहीं होते। उड़ीसा जैसे राज्य ने इतने ही दिनों में अपनी स्थिति में बहुत सुधार किया है। बेहतर होगा कि बिहार के मतदाता इस नजरिए से सोचना शुरू करें और अपने लिए भावी सरकार की राह तैयार करें।



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