बचपन में अपनी असाधारण प्रतिभा से हैरान कर देने वाले कितने ही बच्चों को भोंदू वयस्कों में बदलते हुए हर किसी ने देखा ही होगा। चार-पांच साल के बच्चे किसी एक्सपर्ट की तरह कम्प्यूटर चलाते, सितार बजाते, कविता लिखते, या ऐसा ही कुछ करते नजर आते हैं तो हम झट कह उठते हैं, ‘जीनियस पैदा हुआ है!’ गोया जीनियस आनुवंशिक विरासत में मिला कोई गुण हो। यही जीनियस अक्सर उनके बारह-पंद्रह को होते न होते टें बोल जाता है और आगे जाकर ये बच्चे बेहद साधारण मनुष्य के तौर पर जीवन जीते दिखाई देते हैं।
हालांकि इस बारे में कुछ भी तयशुदा तरीक़े से नहीं कहा जा सकता लेकिन हंगरी के एक मनोवैज्ञानिक पिता द्वारा किया गया एक अद्वितीय प्रयोग अनेक धारणाओं को चुनौती देता है। हंगरी के रहने वाले लैस्लो पोल्गर ने जीनियस की अवधारणा को खारिज करते हुए अपनी तीन बेटियों के साथ एक अभिनव प्रयोग किया – सबसे पहले उन्होंने अपनी पत्नी क्लारा को विश्वास में लिया और आपसी सहमति से अपनी किसी भी संतान को स्कूल भेजने के बजाय घर पर पढ़ाने का फैसला किया।
उनकी तीन बेटियाँ हुईं-1969 में सूजन, 1974 में सोफिय़ा और 1976 में जूडिथ।
तीनों बच्चियों को बिल्कुल बचपन से शतरंज खेलने का प्रशिक्षण दिया गया – जूडिथ याद करती हैं कि उनके घर के हर कमरे में शतरंज से जुड़ी चीज़ें और किताबें अटी रहती थीं। इसके लिए लैस्लो पोल्गर को खासा विरोध भी झेलना पड़ा लेकिन उनका मानना कि वे न सिर्फ अपनी बेटियों को बड़ा खिलाड़ी बनाएंगे, उन्हें महिला वर्ग तक ही सीमित भी नहीं रहने देंगे।
सबसे बड़ी सूजन ने जुलाई 1984 में, जब उनकी उम्र सिर्फ पंद्रह साल थी, दुनिया की नंबर वन महिला शतरंज खिलाड़ी बनकर सबको हैरान कर दिया। उसके बाद पूरे तेईस वर्षों तक वे विश्व की शीर्ष तीन महिला खिलाडिय़ों में बनी रहीं। 1986 में उन्होंने पुरुष विश्व शतरंज चैम्पियनशिप चक्र में क्वालीफाई करने वाली पहली महिला बनकर इतिहास बना डाला। यह किसी अभेद्य दीवार को तोडऩे जैसा कारनामा था। 1996 से 1999 तक वे क्लासिकल टाइम कंट्रोल की महिला विश्व चैम्पियन रहीं। 1992 में उन्होंने विश्व ब्लिट्ज और रैपिड चैम्पियनशिप दोनों जीतकर यह साबित कर दिया कि गति और गहराई—दोनों में वे बेमिसाल हैं। अक्टूबर 2005 में उनका रेटिंग स्कोर 2577 तक पहुँचा, और वे दुनिया की नंबर दो महिला खिलाड़ी रहीं।
सबसे छोटी सोफिय़ा की कहानी भी किसी किंवदंती से कम नहीं। सिफऱ् चौदह साल की उम्र में रोम के एक टूर्नामेंट में उन्होंने नौ में से साढ़े आठ पॉइंट्स अर्जित कर शतरंज जगत में तहलका मचा दिया। उनके ओवरऑल रेटिंग 2879 थी जिससे इतिहास की सबसे ऊँची रेटिंग्स में से एक गिना जाता है। उन्होंने दस बार विश्व चैम्पियनशिप के उम्मीदवार रह चुके महान विक्टर कोर्चनोय को मात दी। हार के बाद विक्टर ने तंज भरे गर्व से कहा था, ‘यह पहली और आखिरी बार है जब वह मुझसे जीती है।’ यह और बात है कि वे फिर कभी आमने-सामने नहीं खेले। सोफिय़ा अब इजऱाइल में रहती हैं, जहाँ उन्होंने तीन बार शतरंज ओलंपियाड में भाग लिया। उनकी टीम ने 1990 और 1998 में स्वर्ण पदक, और 1994 में रजत पदक जीता। व्यक्तिगत रूप से उन्होंने 1990 में एक और 1994 में दो स्वर्ण पदक अपने नाम किए।
बहनों में से सबसे बड़ा नाम मंझली जूडिथ का हुआ जिन्हें आज तक के शतरंज के इतिहास की सबसे मजबूत महिला शतरंज खिलाड़ी माना जाता है। 2700 से अधिक रेटिंग हासिल करने वाली वे पहली और अब तक की अकेली महिला हैं। 2005 में उन्होंने विश्व रैंकिंग में आठवाँ स्थान हासिल किया – कोई भी दूसरी महिला खिलाड़ी आज तक इस जगह नहीं पहुँची है। कुल पंद्रह साल और चार महीने की उम्र में वे इतिहास की सबसे कम उम्र की ग्रैंडमास्टर बनीं। जूडिथ इकलौती महिला हैं जिन्होंने विश्व के नंबर वन खिलाड़ी को हराया है।
जूडिथ ने जिन खिलाडिय़ों को धूल चटाई उनमें मैग्नस कार्लसन, अनातोली कार्पोव, गैरी कास्परोव, व्लादिमीर क्रामनिक, बोरिस स्पास्की, वासिली स्मिस्लोव, वेसेलिन टोपालोव और विश्वनाथन आनंद जैसे वर्तमान शतरंज के सभी बड़े नाम शामिल हैं।
एक दिलचस्प वाकया है – वर्ल्ड चैम्पियन गैरी कास्परोव जब भी किसी खिलाड़ी के साथ खेलते थे तो अपनी बॉडी लैंग्वेज और तौर-तरीकों से सामने वाले को आतंकित करने का प्रयास करते थे। कभी घड़ी उतार कर बोर्ड के किनारे रख देते, कभी कोट उतार देते तो कभी आस्तीनें चढ़ा कर चहलकदमी शुरू कर देते। बड़े खिलाड़ी तो वे थे ही। इस तरह खेली जाने वाली बाज़ी अमूमन किसी मनोवैज्ञानिक युद्ध में बदल जाती थी जिसमें ज़्यादातर जीत कास्परोव की होती थी। शुरू में पराजित होने के बाद जूडिथ ने कास्परोव की इस चाल को समझ लिया और अगली बार जब वे आमने-सामने थे, कास्परोव की एक न चली। हंगरी के उस ख़ब्ती मनोवैज्ञानिक पिता की मेहनत का नतीजा देखना हो तो इंटरनेट पर खोज कर जूडिथ पोल्गर और गैरी कास्पारोव की उस बाज़ी का वीडियो देखिए।
हर कोई अपने बच्चों को सफलता के शीर्ष पर देखने का सपना देखता है। उन्हें वहां पहुंचाने का कोई एक सुनिश्चित तरीका होता है, कहा नहीं जा सकता। लैस्लो पोल्गर का तरीका अलबत्ता मेरी समझ में आता है-अकेली प्रतिभा से कुछ बनता-बिगड़ता नहीं। असल चीज़ है मेहनत और अनुशासन और बगैर थके इन दोनों को खूब लम्बे समय तक बरत सकने का धैर्य।

