इंद्रावती टाइगर रिजर्व में विस्थापन की आहट से 56 गांवों में उबाल, ग्रामीण बोले–जान दे देंगे, जमीन नहीं छोड़ेंगे

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बीजापुर। माओवाद के खात्मे की सरकारी घोषणाओं के बीच एक बार फिर इंद्रावती टाइगर रिजर्व क्षेत्र के भीतर बसे 56 गांवों के ग्रामीणों में गहरी चिंता और आक्रोश फैल गया है। वजह है, सरकार द्वारा इंद्रावती टाइगर रिजर्व को बाघों व अन्य वन्य जीवों के संरक्षण के लिए अभ्यारण्य घोषित करना और इसके दायरे में आने वाले गांवों को विस्थापित करने की तैयारी।

जानकारी के मुताबिक, सरकार इस क्षेत्र को पूरी तरह “कोर टाइगर हैबिटेट” के रूप में विकसित करना चाहती है, जिसके चलते इंद्रावती नदी के दोनों किनारों पर बसे दर्जनों आदिवासी गांवों को अन्य स्थानों पर बसाने की योजना बनाई जा रही है। इसी आशंका ने ग्रामीणों को आंदोलित कर दिया है।

पीढ़ियों से बसे हैं, अभ्यारण्य बाद में बना’

ग्रामीणों का साफ कहना है कि वे इन जंगलों में किसी अवैध कब्जेदार की तरह नहीं, बल्कि सदियों से यहां के मूल निवासी के रूप में रह रहे हैं। ग्रामीणों के पास राजस्व पट्टे के साथ-साथ राजा पट्टा तक मौजूद है, जो उनके परंपरागत अधिकारों को प्रमाणित करता है। उनका तर्क है कि जब वे यहां रह रहे थे, तब न कोई टाइगर रिजर्व था और न ही अभ्यारण्य। यह सब सरकार ने बाद में घोषित किया। इन क्षेत्र के ग्रामीणों मे इस बात कि भी शंका है कि सरकार अभ्यारण के नाम से जमीन हथिया कर औद्योगिक घरानो को यह जमीन दे देगी।

प्रभावित प्रमुख गांव

इंद्रावती टाइगर रिजर्व क्षेत्र में आने वाले जिन गांवों पर विस्थापन का खतरा मंडरा रहा है, उनमें प्रमुख गांव साकमेटा, इर्पगुटा, बड़े काकलेड, छोटे काकलेड, एडापल्ली, गुंडम, पंदीवाया, पिलूर, सप्पिमर्का, करेमरका, सालेपल्ली, एलिगनड्रा, संड्रा, गर्तुल, चर्पेल सहित कुल 56 गांव शामिल हैं, जहां हजारों आदिवासी परिवार निवास करते हैं।

ग्रामीणों का दावा है कि यहां मानव और वन्यजीवों के बीच वर्षों से संतुलन बना हुआ है। बाघ, भालू, हिरण, जंगली सुअर, वन भैसे जैसे जीव जंगलों में स्वतंत्र रूप से विचरण करते हैं और ग्रामीण अपने गांवों में। आज तक किसी बड़े टकराव की स्थिति नहीं बनी है।

ग्रामीणों का कहना है, हम जंगल को नुकसान नहीं पहुंचाते, बल्कि उसकी रक्षा करते आए हैं। जंगल बचे हैं, तो हम हैं और जमीन छोड़ना मौत से बदतर होंगी।

ग्रामीणों ने दो टूक शब्दों में चेतावनी दी है कि वे किसी भी कीमत पर अपनी जमीन, जंगल और पूर्वजों की स्मृतियों को छोड़कर नहीं जाएंगे। जरूरत पड़ी तो जान दे देंगे, लेकिन विस्थापन स्वीकार नहीं करेंगे।

इन दिनों क्षेत्र में ग्राम सभाओं का दौर शुरू हो चुका है।ग्रामीण किसी भी हाल मे विस्थापित नहीं होना चाहते है, अगर प्रयास किया गया तो बड़ा जन आंदोलन खड़ा होगा।

अब सवाल यह है कि क्या सरकार वन्यजीव संरक्षण और आदिवासी अधिकारों के बीच संतुलन बना पाएगी, या एक बार फिर विकास और संरक्षण की आड़ में आदिवासी समुदायों को अपने ही घरों से बेदखल किया जाएगा।



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